क्यों हम इतने बड़े हों जाते हैं?
क्यों हम इतने बड़े हों जाते हैं?
बचपन में हज़ार बार झगड़ कर भी थोड़ी सी देर में फिर संग हों जाते थे,
आज वही भाई बहन मन मुटाव होने पर बात करने से भी कतराते हैं,
पता नहीं क्यों हम इतने बड़े हों जाते हैं?
बचपन में पटाखे फोड़ कर दिवाली मनाते थे,
आज छोटी - छोटी बातों पे सड़क पर डंडे बरसाते हैं,
पता नहीं क्यों हम इतने बड़े हों जाते हैं?
बचपन में पेंसिल और खिलौने के टूटने के गम सताते थे,
आज सपने टूटने और ज़िन्दगी बिखरने का मातम मनाते हैं ,
पता नहीं क्यों हम इतने बड़े हों जाते हैं?
बचपन में दोस्त की एक आवाज़ पर दौड़ते हुए पहुँच जाते थे,
आज मिलने के लिए भी मोबाइल में रिमाइंडर लगाते हैं ,
पता नहीं क्यों हम इतने बड़े हों जाते हैं ?
बचपन में जो माता पिता हमारे प्रेरणा स्त्रोत हुआ करते थे,
बड़े हों के वही पिछड़े हुए नज़र आने लगते हैं ,
पता नहीं क्यों हम इतने बड़े हों जाते हैं ?
बचपन में जिंदगी का पूरे दिन भरपूर लुत्फ उठा के रात को निफ्राम सो जाते थे,
आज मखमली बिस्तर पर भी चिंता से व्यथित हों कर करवट - बदल - बदल के रात बिताते हैं ,
पता नहीं क्यों हम इतने बड़े हो जाते हैं ?
बड़े हों के ये करेंगे बड़े हों के वैसे बनेंगे,
ये सब सपने ना जाने कहाँ दफ़न हों जाते हैं ,
पता नहीं क्यों हम इतने बड़े हों जाते हैं ?
सुन्दर भविष्य के सपने संजोये अपने आज को भूल कर
एक कभी ना ख़त्म होने वाली होड़ में लग जाते हैं ,
पता नहीं क्यों हम इतने बड़े हों जाते हैं ?
जितने विकसित दिमाग़ होते हैं, उतने ही विकास से दूर हो के
एक अंधेर रास्ते पे खोये चले जाते हैं ,
पता नहीं क्यों हम इतने बड़े हों जाते हैं ?
