मासूम खंजर
मासूम खंजर


इतना प्यार के काबिल हम थे नहीं कभी
मगर नफ़रत, दुत्कार चाहा भी न था।।
फ़िर क्यों ये वक्त इतना फ़रेबी निकला
दवा की बोतल में क्यों दारू भर रखा था।।
बुझा रखा है मैने तमाम चराग़ों के लौ,
अंधेरों को अंधेरे में परखना चाहा था।।
नाखूनों के नोक में ये कैसी रंगीं निशाँ
घायल ज़िगर को तेरे रहम पे तो रखा था।।
महसूस होता कुछ सुकून सा आजकल
कल तक जो मैने साँसें रोक रखा था।।
जुदा कर दिया तेरे हिस्से के प्यार को अब
जिसे आज तक मैने वफ़ा ही सोचा था।।
लटों को हटाते हुए आज भी उस तरह तुम
ताकती हो , जिसे मैं प्यार मान बैठा था।।
चलो जाने भी दो मेरा आदत हो गया अब
जान निकलते तक ,जीना जान चुका था।।
बेवजह बदनाम वो ख़ंजर ज़ख्म देता है जो,
वार करने वाला वो प्यार अपना ही तो था।।
तरस आता है देख उस मासूम खंज़र को
दर्द दे रहा था , मगर खुद रो रहा था।।