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paramjit kaur

Tragedy

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paramjit kaur

Tragedy

भूख...!

भूख...!

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मायने बदल गए, मापदंड बदल गए 

इंसान की इंसानी भूख से, रिश्ते बदल गए।

कहीं पेट की आग में सुलगती हैं हड्डियाँ 

 भरपेट खाकर भी उनकी भूखी है इंद्रियाँ।  


दुकानें सजी हैं, लगती हैं बोलियाँ 

भूखों की देखो, मुसकुराती टोलियाँ। 

चरमराते आईनों में, खिलखलाती है भूख 

आज सस्ता है इंसान, महँगी है भूख !


झोंपड़ों से निकल, चकाचौंध में सजती है 

इंसानी गिद्धों को, अमावस सी फलती है। 

देखो, क्या है आलम ! भूखे बंट गए हैं 

सर पर छत नहीं है जिनके, आज तृप्त लग रहे हैं... !


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