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paramjit kaur

Abstract

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paramjit kaur

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पानी के बुलबुले से शब्द !

पानी के बुलबुले से शब्द !

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वे शब्द..... ! 

जैसे -पानी के बुलबुले से...!

 उभरते और फिर गड्डमड्ड हो जाते ,

शायद ,सुना होगा, तुमने भी !

मगर , मैं सुन लेती ,तो अच्छा था !

आत्म निष्ठा के लिबास में ,स्वयं को समेटे बढ़ती रही ,

बहुत कुछ कर दिखाने का जुनून लिए, न कभी कदम थके न हिम्मत हारी !

कहीं अहंकार था ,तो कहीं तिरस्कार !

ऐसे में अंत:करण में उठते ......वे शब्द !

अनसुना न करती, तो अच्छा था !

ज़िद थी , जो बिखर -बिखर कर सँवरती गई , 

विरोधों और व्यवधानों में रास्ता तलाशती ,

मगर ,इस संघर्ष में ,

अंतर्मन का एक कोना, अक्सर कुछ कहना चाहता ,

हाँ ....वे ही शब्द!

कभी होंठों पर मुस्कान बिखेर देते, 

तो, कभी आँखों के कोरों से दो बूँदें टपका, गड्डमड्ड हो जाते । 

शायद ,बहुत कुछ कहना चाहते थे !

सुन लेती, तो अच्छा था !

मन में उमड़ते -घुमड़ते जज़्बातों को, हालातों की आड़ में कहीं अंदर भींच लिया था मैंने !

दिन के शोर में दबे ,

अक्सर ,रात को बेचैन हो, दस्तक देते ,

मगर , जीवन की भाग -दौड़ में मिलने का वक़्त कहाँ था ?

अगर ,मिल लेती ,तो अच्छा था !

आज ,वक़्त की करवट ने, उन्हें मुझसे मिला ही दिया । 

परिवर्तन का जज़्बा लिए, सफ़र आज भी जारी है । 

मगर ,फ़र्क केवल इतना है ,

जज़्बातों की स्याही में शब्दों का प्रवाह है ,

मन के अंदर , वही पानी के बुलबुले से शब्द !

मगर ,आज गड्डमड्ड नहीं होते ,

मुस्कुरा कर कहते हैं -यदि पहले समझ लेती तो अच्छा था ! 



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