पानी के बुलबुले से शब्द !
पानी के बुलबुले से शब्द !
वे शब्द..... !
जैसे -पानी के बुलबुले से...!
उभरते और फिर गड्डमड्ड हो जाते ,
शायद ,सुना होगा, तुमने भी !
मगर , मैं सुन लेती ,तो अच्छा था !
आत्म निष्ठा के लिबास में ,स्वयं को समेटे बढ़ती रही ,
बहुत कुछ कर दिखाने का जुनून लिए, न कभी कदम थके न हिम्मत हारी !
कहीं अहंकार था ,तो कहीं तिरस्कार !
ऐसे में अंत:करण में उठते ......वे शब्द !
अनसुना न करती, तो अच्छा था !
ज़िद थी , जो बिखर -बिखर कर सँवरती गई ,
विरोधों और व्यवधानों में रास्ता तलाशती ,
मगर ,इस संघर्ष में ,
अंतर्मन का एक कोना, अक्सर कुछ कहना चाहता ,
हाँ ....वे ही शब्द!
कभी होंठों पर मुस्कान बिखेर देते,
तो, कभी आँखों के कोरों से दो बूँदें टपका, गड्डमड्ड हो जाते ।
शायद ,बहुत कुछ कहना चाहते थे !
सुन लेती, तो अच्छा था !
मन में उमड़ते -घुमड़ते जज़्बातों को, हालातों की आड़ में कहीं अंदर भींच लिया था मैंने !
दिन के शोर में दबे ,
अक्सर ,रात को बेचैन हो, दस्तक देते ,
मगर , जीवन की भाग -दौड़ में मिलने का वक़्त कहाँ था ?
अगर ,मिल लेती ,तो अच्छा था !
आज ,वक़्त की करवट ने, उन्हें मुझसे मिला ही दिया ।
परिवर्तन का जज़्बा लिए, सफ़र आज भी जारी है ।
मगर ,फ़र्क केवल इतना है ,
जज़्बातों की स्याही में शब्दों का प्रवाह है ,
मन के अंदर , वही पानी के बुलबुले से शब्द !
मगर ,आज गड्डमड्ड नहीं होते ,
मुस्कुरा कर कहते हैं -यदि पहले समझ लेती तो अच्छा था !