प्रश्न नहीं,परिभाषा बदलनी होगी
प्रश्न नहीं,परिभाषा बदलनी होगी
चाहती हूँ ,उकेरना ,औरत के समग्र रूप को, इस असीमित आकाश में !
जिसके विशाल हृदय में जज़्बातों का अथाह सागर,
जैसे संपूर्ण सृष्टि की भावनाओं का प्रतिबिंब !
उसके व्यक्तित्व की गहराई में कुछ रंग बिखर गए हैं ।
कहीं व्यथा है ,कहीं मानसिक यंत्रणा तो कहीं आत्म हीनता की टीस लिए!
सदियों से आज भी वह जूझती है ,अपने आत्मसम्मान के लिए !
परिवार ,समाज ,मर्यादाओं में बंधी,
वह पुरुष ही नहीं ,औरत से भी तो छली गई !
क्यों विचलित नहीं करती वह सिसकियाँ ?
जब उसके अस्तित्व को इंसान के भेष में नोच लेता है हैवान !
मगर ,संवेदन हीन हो, तटस्थता से नई परिभाषा दे ,आगे बढ़ जाता है ये समाज !
अपनी शक्ति से अंजान , वह चूल्हे की आग- सी सुलगती,
गुम हो रही है ,इस मटमैले धुएँ के गुबार में !
अब बस !
प्रश्न नहीं ,अपनी परिभाषा बदलनी होगी !
समाज द्वारा निर्धारित मापदंड और पैमानों से परे,
अपनी मातृत्व शक्ति के साथ ,अब उसे ही मर्द को मर्दानगी के दायरे बताने होंगे ।
नए विचार और नए समाज को जन्म देना होगा ।
वही होगा ,उसका समग्र रूप ,इस असीमित आकाश में !
