इंसानों की भीड़ में ,इंसान!
इंसानों की भीड़ में ,इंसान!
अक्सर, उलझ जाती हूँ,
इंसानियत के इस वेश को देखकर!
पारदर्शिता के लिबास में,
बाहरी चकाचौंध,
अंदर, संकुचित मानसिकता का
गहन अंधकार!
कुछ आहत हैं, मगर मजबूर हैं,
कहीं मजबूरी, दिखावा है!
सुन सकते हो, तो सुनो...!
हर वर्ग में गूँजता ' मैं' का अट्टहास!
काश! नाप सकती इस छल की गहराई को,
मगर, भीतर बहुत शोर है,
बहुत कुछ कहना चाहती हूँ।
परिवर्तन के प्रयास में उलझती, संभलती,
खोजती हूं,
इंसानों की भीड़ में, इंसान!
