मौन...?
मौन...?
पूछना चाहती हूँ, सूरज से!
गवाह था, वह भी तो उन परिंदों का,
जिन्होंने आँधियों का रुख़ मोड़ा था।
बढ़ाया था, जिनके तेज़ ने, उसकी लालिमा को भी !
स्वतंत्रता के मद में, वह भी तो बहुत इतराया था,
क्यों, आज वह मूक है ?
इस स्वतंत्र हवा में भी, मनुष्य को चेतना शून्य देखकर!
यह नशा है या वक्त की लाचारी है,
आज पशुता, मानवता पर भारी है!
इन कुचलती हुई दिशाओं को देखकर भी,
मंजूर नहीं, मुझे !
तुम्हारा यूं मौन रह जाना