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paramjit kaur

Tragedy

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paramjit kaur

Tragedy

संस्कार...!

संस्कार...!

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आज रो रही हो क्यों तुम ?

सहनशीलता और मर्यादा का पाठ तो तुमने मुझे पढ़ाया था। 


बचपन में जब भाई ने मुझको धक्का मारा था ,

तुमने उसे पुचकार कर मुझ रोती को ,

गुस्से से, उसको पानी देने के लिए पुकारा था। 


मेरे जख़्मों पर अब क्यों रोती है ?

सहना तो तूने ही सिखाया था। 

अपमानित जब तू होती थी , पिटती थी और रोती थी ,

मैं दरवाज़े की ओट में खड़ी सिहरन से भर जाती थी।  


ये जख़्म तो फिर भर जाएँगे ,

पर क्या मेरा अस्तित्व लौटा पाएँगे ?

दोषियों को सजा भी हो जाएगी। 

पर उस दीमक भरी सोच का क्या ,

वह समाज से कब बाहर जाएगी ?


तेरी परवरिश की देख , मैंने क्या कीमत चुकाई है ?

इनकार किया तो जला दी गई , हैवानियत की मोहर लगाई है। 


बेटों की इस हरकत पर अब क्यों अपमानित होती है ?

पहले सोच नहीं बदली , अब मुँह छिपाकर रोती है। 


औरत केवल शिकार नहीं , यह अहसास तुझे ही कराना होगा ,

अपने संस्कारों के साथ अपनी परवरिश को भी मजबूत बनाना होगा। 



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