संस्कार...!
संस्कार...!
आज रो रही हो क्यों तुम ?
सहनशीलता और मर्यादा का पाठ तो तुमने मुझे पढ़ाया था।
बचपन में जब भाई ने मुझको धक्का मारा था ,
तुमने उसे पुचकार कर मुझ रोती को ,
गुस्से से, उसको पानी देने के लिए पुकारा था।
मेरे जख़्मों पर अब क्यों रोती है ?
सहना तो तूने ही सिखाया था।
अपमानित जब तू होती थी , पिटती थी और रोती थी ,
मैं दरवाज़े की ओट में खड़ी सिहरन से भर जाती थी।
ये जख़्म तो फिर भर जाएँगे ,
पर क्या मेरा अस्तित्व लौटा पाएँगे ?
दोषियों को सजा भी हो जाएगी।
पर उस दीमक भरी सोच का क्या ,
वह समाज से कब बाहर जाएगी ?
तेरी परवरिश की देख , मैंने क्या कीमत चुकाई है ?
इनकार किया तो जला दी गई , हैवानियत की मोहर लगाई है।
बेटों की इस हरकत पर अब क्यों अपमानित होती है ?
पहले सोच नहीं बदली , अब मुँह छिपाकर रोती है।
औरत केवल शिकार नहीं , यह अहसास तुझे ही कराना होगा ,
अपने संस्कारों के साथ अपनी परवरिश को भी मजबूत बनाना होगा।
