लड़कपन
लड़कपन
पहली बार उसको मैंने, उसके आँगन में देखा था
उसकी गहरी सी आँखों में अपने जीवन को देखा था
मैं तब था चौदह का वो बारह की रही होगी
खेल खेल में हम दोनों ने दिल की बात कही होगी
समझ नहीं थी हमें प्यार की बस मन की पुकार सुनी
बचपन के घरौंदे ने फिर अमित प्रेम की डोर बुनी
उसे देखकर लगता था जैसे बस ये जीवन थम जाए
बस उसकी भोली सूरत पर नज़रें मेरी ठहर जाए
कई और थे उसके साथी पर उसने बस मुझको देखा
उसके मन से मेरे मन तक थी कोई एक अंजानी रेखा
खेल खेल में हाथ पकड़ कर फेरे कितनी बार लिए
प्यार हमारा सदा रहेगा वादें कई हजार किए
वो बचपन था कितना अच्छा मोल भाव का खेल नहीं
बड़े हुए तो समझा हमने सपनों का कोई मोल नहीं
बचपन बीता आई जवानी ढेरों रंग वो ले आई
ना जाने फिर किस कोने में बचपन की यादें खो आई
हम दोनों है अब भी संगी पर साथी अब रहे नहीं
ज्योत है अभी भी बाकी पर दिया-बाती रहें नहीं
हाथ पकड़ कर किसी और का जीवन पथ पर वो निकल पड़ी
देखकर मेरी बेसुध हालत, गांव की गलियां कलप पड़ी
दोनों बिछड़े एक-दूजे से, पर क्या हम खुश रह पाएंगे?
क्या हम अपने दिल से बचपन की याद मिटा भी पाएंगे ?
अच्छा होता के हम तुम दोनों एक दूजे के हो जाते
संग में हंसते संग में रोते आंख मूंद कर सो जाते।