कुछ तो बात है मगर क्यूँ
कुछ तो बात है मगर क्यूँ
कुछ तो बात है जो बताते नहीं मगर क्यूँ
बात जो है जुबां पर लाते नहीं मगर क्यूँ
इश्क़ में हर गुनाह कबूल है हमें
बेगुनाही का सबूत देते हैं मगर क्यूँ
गुनाह भी करते हैं एहसान नहीं जताते हैं मगर क्यूँ
अनाम हवाला देकर फिर पहचान बताते हैं मगर क्यूँ
दिल की आरज़ू थी उसे पाने की
ख्वाहिश वह पूरी हो गई मगर क्यूँ
उसकी हर सांस रूह में उतरने लगी है मगर क्यूँ
उसे ख़बर नहीं वह हमारे दिल में उतरने लगी है मगर क्यूँ
जहाँ भी रहे खुश रहे वह सदा
दिल से दुआ निकलती है मगर क्यूँ
जिससे मिला नहीं उससे मोहब्बत हो गई है मगर क्यूँ
मुमकिन है कि वह ज़िन्दगी की ज़रूरत हो गई है मगर क्यू
जब-जब ठोकर उसे लगती है
दर्द दिल में उभर आते हैं मगर क्यूँ
सुबह-शाम जुबां पर उसका ही नाम होता है मगर क्यूँ
पहले छिप कर होता था अब सरेआम होता है मगर क्यूँ
जब भी गुजरते हैं उसकी गली से
खिड़की पर नज़र आती
यारों की महफ़िल में उसका ही ज़िक्र करने लगे हैं मगर क्यूँ
उसको ख़बर नहीं है हम उसकी फ़िक्र करने लगे हैं मगर क्यूँ
उसकी इस क़दर आदत हो गई है
जीने की आदत बदल गई है मगर क्यूँ
ख्यालों की उलझी सलवटों में दर्द बिखरने लगे हैं मगर क्यूँ
दिल की दीवारों में दफ़न अरमान निखरने लगे हैं मगर क्यों
कभी हमसे इश्क़ लड़ाते नहीं मगर क्यूँ
दिल लगाया है तो बताते नहीं मगर क्यूँ