फिर सोचती हूँ
फिर सोचती हूँ
दिल में तस्वीर जिसकी टंगी है, वह तुम हो
पलकों में जिसे सजा कर रक्खा है, वह तुम हो
मगर तड़पन किसी और के लिए क्यों, बताओ तो
फिर सोचती हूँ शायद मेरे प्यार में ही कोई कमी थी
रूह की गहराई में जिसे उतारा है, वह तुम हो
चाँद-तारों से जिसका ज़िक्र करती हूँ, वह तुम हो
मगर नज़रें किसी गैर से लड़ी क्यों, बताओ तो
फिर सोचती हूँ शायद मेरी कशिश में ही कोई कमी थी
तन्हाईयों में जिससे गुफ़्तगू करती हूँ, वह तुम हो
जिसकी यादों में करवटें बदलती हूँ, वह तुम हो
किसके ख्यालों में तुम खोये-खोये रहते हो, बताओ तो
फिर सोचती हूँ शायद मेरी अदाओं में ही कोई कमी थी
बिन जिसके ज़िन्दगी अधूरी-सी है, वह तुम हो
अपनी हर आदत में जिसे शुमार किया, वह तुम हो
मगर ज़ुबान पर नाम किसी और का क्यों, बताओ तो
फिर सोचती हूँ शायद मेरी तक़दीर में ही कोई कमी थी
पतझड़ के मौसम में भी जिसे बसंत माना, वह तुम हो
सावन में जिसके लिए नयन बादल बन बरसे, वह तुम हो
मगर साँसों में तुम्हारे कोई गैर क्यों महके, बताओ तो
फिर सौचती हूँ शायद मेरी वफ़ा में हो कोई कमी थी
नाजुक रिश्तों के कच्चे धागे किसने तोड़े, बताओ तो
फिर सौचती हूँ शायद मेरे समझने में ही कोई कमी थी।