अनोखा बंधन
अनोखा बंधन
शायद अलग हूँ मैं,
कुछ अपनी अलग सोच से,
देखती हूँ मैं,
तुम्हारे अंदर छिपे,
उस दिव्यता के अंश को,
जो कराता हैं दर्शन मेरे ईश्वर का,
नतमस्तक होती हूँ मैं,
भरती हूँ हर मन में बस प्रेम करुणा के सागर,
एक ऐसा बंधन समझ,
जो परे हैं दुनियादारी के नामों से,
पर दूर हो जाती हूँ कुछ मैं,
जब देखते हो तुम मुझमें,
तुम बस मेरे हैं नक्श,
और एक नारी की देह,
तुम्हारे लिए बस ये प्रेम है,
पर मेरा प्रेम तो,
परे है हर बंधन से,
जहाँ वह मेरा प्रियतम,
कण कण में रहता हैं,
हर जीव में रहता हैं,
खिखिलाते बचपन में,
मुस्काते पुष्प में,
मैं तो उनसे भी प्रेम करती हूँ,
कण कण में इष्ट देखती हूँ,
मेरे इस प्रेम वो खिलखिलाते हैं,
संग संग गाते है,
नही देखते वो मेरी देह या नैन नक्श,
बस देखते हैं मेरा प्रेम,
एक अनोखे बंधन सा,
एक पवित्र स्पंदन सा,
फिर तुम क्यों नहीं जगा सकते वो प्रेम,
जो भूल इस देह, नैन नक्श को,
बस बना दे एक अनोखा बंधन,
प्रिय से प्रिय के मिलन का,
दो आत्माओं के मिलन का,
जहाँ पूर्ण हो जाये एक प्यारा सा बंधन,
जैसे हर आत्मा का परमात्मा में मिलन,
छोड़ रही हूं एक प्रश्न चिन्ह यहाँ,
क्या जी सकते हो वह बंधन,
वो अनोखा बंधन?