कसूर
कसूर
मेरे जीवन की कश्ती को अधर में छोड़
तुम न जाने कहाँ खो गए थे।
मझधार में मिला नहीं कोई खवैया
जो पार लगाता मेरे जीवन की नैया।
तुम इस संसार में पंख फैला कर उड़ने लगे
तुम्हारे दिए तूफान से, मेरे जीवन के दिन मुड़ने लगे।
तुम्हारे होते होते
मेरे जीवन की कश्ती खाने लगी गोते।
गर्म लू के थपेड़े
दस्तक देने लगे सवेरे-सवेरे।
उस बिजली का कड़कना
बिन बादलों के फटना।
जीवन की कश्ती में भंवर का घेरा
देता मुझे तनहाइयाँ और अंधेरा।
उड़ा लेता मेरा चैन
और मैं हो उठती बेचैन।
सहारा मांगती मेरे जीवन की डोर
खिंचती तुम्हारी ओर।
पर तुम तोड़ देते उस डोर का धागा
जो सहारे के लिए तुम्हारी ओर था भागा।
उस टूटी डोर की गाँठ, देती थी मुझे चुभन
और शुरू हो जाता मेरा रुदन।
पर कोई नहीं आता मुझे चुप कराने
जो बोलता मेरे लिए प्यार के दो मीठे तराने।
जीवन से इतनी हो गई थी पीड़ा
नस-नस को डसता था तुम्हारी बेरुखी का कीड़ा।
तुम क्या जानो मेरा दर्द
तुम्हारा लहू तो हो चुका था सर्द।
भंवरजाल में फँसी कश्ती को
स्वयं की हिम्मत का मिल गया खवैया
और पार लगने लगी मेरे जीवन की नैय्या।
जब कश्ती को मिल गया किनारा
तुम भी आ गए बनने सहारा।
अब मैं हूँ तुम्हारे जीवन का हिस्सा
भूल जाओ पिछली कहानी और किस्सा।
तुम मांगने लगे माफी
और कहने लगे तुम्हारे लिए इतना है काफी।
अपनी गलती को कहने लगे तुम भूल
नाम न देना इसे शूल।
शायद तुम भी दोहराने लगे,
इसी जमाने का दस्तूर
जो देकर नासूर
कहता है इसमें मेरा क्या कसूर।