बाहर बहुत अंधेरा है
बाहर बहुत अंधेरा है
बाहर बहुत अंधेरा हैं, डर लगता है
चलो हाथ पकड़ कर चलते हैं
अब अपना घर भी, कहां अपना लगता हैं?
कैसे पकड़ू हाथ किसी का
गर्म जोशी से मिलते हाथों के
स्पर्श से अब डर लगता हैं।
बंद है घरों के खिड़की-दरवाजे
झीरियों से तांक-झांक करती
रोशनी से अब डर लगता हैं।
झीरियों से झांकते
ढ़लती उम्र के नि:सहाय शजरों
की तन्हां जिंदगी से डर लगता है।
मनमीत मिलते हैं
दिल के मुरझाएं पुष्प खिलते हैं
अब उजले तन के,
कजले मन से डर लगता हैं।
हाथ मिला लिया हैं भीतर के उजास ने
बाहर पसरे घोर अंधेरे से
अब अपने ही भीतर से डर लगता हैं।
बाहर बहुत अंधेरा हैं, डर लगता है
चलो हाथ पकड़ कर चलते हैं
अब अपना घर भी, कहां अपना लगता हैं?
