आंसुओं की झड़ी
आंसुओं की झड़ी
बाबा की आंखों में
आंसुओं की झड़ी थी ।
बात बड़ी छोटी
मगर पीड़ा बहुत बड़ी थी ।
बेटा! पचास साल कमाया है
खून-पसीना बहाया है
छोड़ गए मेरी कमाई पर पलने वाले
बाबा, बुढ़ापे का सहारा
अब तुम्हारे पास, यह छड़ी है ।
बाबा के नैनों से बरस रही थी
सावन-भादो की झड़ी ।
घुटने से लाचार हूं
दो वक्त के खाने को बेजार हूं ।
छोड़ गई वह भी मुझे
जिससे सात जन्मों की
जोड़ी लड़ी थी।
बाबा ने खुद को तसल्ली के
बाम से सहलाया था ।
दो मंजिलें मकान की यह दीवारें
अब मुझे सहलाती हैं ।
बाबा! कितने जतन से
तुमने हमें मकान की
मजबूत नींव में ढ़लवाया था
अब आंखों की तरह टपक जाता है
छत का कोई कोना ।
मगर ईंट-गारा-मिट्टी
बड़ी वफा से साथ निभाते हैं
इधर-उधर से छितरकर
उस दरार को भर जाते हैं ।
बाबा ने छत को गौर से निहारा था
इस पर मैंने धन-दौलत,
जवानी सब वारा था
यह वक्त की घड़ी है
इसी छत को मेरी पड़ी है ।
बाबा ने ठंडी सांस को छोड़ा था
जब एक-एक करके
सबने मुख मोडा था
इसके जर्रे-जर्रे ने
दिल से नाता जोड़ा था ।
बाबा तुम्हारे टूटने-बिखरने से
हमारा अस्तित्व भी
टूट-बिखर जाएगा
परदेसी बाबू तो
यहां लौटकर नहीं आएगा।
छत और बाबा के नैनन की
अविरल झड़ी
सहारे की एकमात्र छड़ी से
अंतिम संगम के सुर मिला रही थी।
