शिकायती पत्र
शिकायती पत्र
प्रिय पापा,
बहुत दुलार पाया आपसे,
हर फरमाइश पूरी होते पाया आपसे,
घोड़ा बने मेरे लिए,
अनगिनत प्यारे पल दिए,
जाने कितनी तस्वीरें कौंध जाती हैं,
मेरी शादी में रोते आप--
आज भी मेरी आँखें धुंधला जाती हैं,
"पति" का ऊंची आवाज में बोलना ,
मुझ को खुद से कमतर तोलना,
आपको नही स्वीकार्य--
भृकुटि तन जाती थी,
लगा लेते थे सीने से बच्चों की तरह,
मैं भी तो हल्की हो आती थी,
फिर ये शिकायती पत्र---
पापा---
ईश्वर मुझे हिम्मत दे,
आप सिर्फ मेरे पिता?
और बाकी दुनिया?
कैसे कहूँ, जब बड़ी हुई,
एक और रूप नजर आया था,
जिसने मुझे पहले तो---
अपनी ओछी सोच पर धमकाया था,
पर पापा, युवा होती मैं और---
अधेड़ होते आप---
दुनिया की हर स्त्री नही है बेटी,बहन,
पर कसम से आपका ये रूप,
किंचित भी नही भाया था,
मां ने तो कभी अपना,
ऐसा रूप न दिखाया था.
हंसना, बोलना कब बुरा होता है,
पर उसके आगे भी----
बहुत कुछ समझ आया था,
माँ की कटुता, मां की बेबसी,
बस यहीं पर,
सोच को लगाम देती हूँ,
कलम को विश्राम देती हूँ,
पापा, समझना थोड़े को बहुत,
और दे देना उपहार उंस स्वभाव का--
जिसे पाकर मैं धन्य हो जाऊं,
खुशी से फूली नही समाऊं,
आपकी-
बेबाक बेटी----
