मेरे जख्मों की तुरपाई ना हुई
मेरे जख्मों की तुरपाई ना हुई
बारहा देखा है कि सूरज के छिपते ही,
गायब हो जाती खुद की जाती परछाई है !
लेकिन भरी दुपहरी ही यह तितली ,
क्यूं छुपकर गुल से मिलने चली आई है !
सबके अपने अपने दर्द अलग हैं ,
और अपने अपने अलग अलग किस्से हैं !
भला ऊपर से देखकर कौन बताए कि ,
दर्द का हुआ बंटवारा कितने इसके हिस्से हैं!
किसकी आँखों में अब उभर आए आँसू ,
उल्फत में कितनों ने चोट जिगर में खाई है।
सच तो यह है कि जो जितना मुस्काता है,
बस समझो उसने उतनी गहरी चोट खाई है !
जो कहा करते थे कि रह लेंगे तेरे बिन,
आज मेरे बगैर कैसे उनकी जां निकल आई है!
ज़ब भी आदतन मेरी नज़र मिली उनसे ,
तब तब उन्होंने इठलाकार ली अंगड़ाई है!
हम तो बस अपनों से ही बचकर रहते हैं ,
कई दफा हमने उनसे चोट बड़ी गहरी खाई है!
यूँ तो अक्सर भर आती हैं हमारी आँखें ,
अपने गहरे जख्मों की हँसकर की तुरपाई है!
हमने जब कभी खुद को तन्हा है पाया,
अपने साये संग रहकर दूर हुई तन्हाई है!
