लिख रही मैं अंजन से पाती
लिख रही मैं अंजन से पाती
राधा-सा स्मरण में झुलस रहा तन-मन
बैरागिन होकर विचर रहती मैं बन-बन।
द्रवित हृदय से निकलती सदा बरसाती
तभी तो अंजन-मसि से लिखूं मैं पाती।।
तन्हाई से भीगी-भीगी हुई मेरी यामिनी
मृत प्राय: सी आज हो गई तेरी शालिनी।
ओ, पिया अब आकर दो प्रीत-संजीवनी
नहीं तो बन जाऊँ विरह में तेरे तपस्विनी।।
सुहाने दिनों की प्यारी सी पास है धाती
करुणा विगलित मन को वही है भाती।
रिश्ता हमारा अटूट दिया-बाती समान
अहर्निश तुझ पर लगा रहता है ध्यान।।
बिखरे-बिखरे ही रहते सदा ही कुंतल
उतार दिए हैं पिया सुंदर स्वर्ण-कुंडल।
अश्रुओं से फैल रहा मुख पर काजल
रुलाई फूटे देखकर ये काले-से बादल।।
बीते कई ही बरस, कब होगा समागम
टूटता जा रहा है अब दिनोदिन संयम।
द्वार पर बैठी कबसे कर रही इंतजार
अब तो सुन ले तू मेरी करुण पुकार।।
