स्त्री
स्त्री
वेदना सी बेधती चली गई
मेरे अन्तर्मन को वो चीख
हिल - सा गया जहांन सारा
जीत गया कुकर्मी - नीच
वो चीखती - चिल्लाती किस से
कान सबने हैं बंद किए
वो आपबीती बताती किस से
समाज ने तो बस निर्णय दिए
सजा भी उसे ही मिली
और दुत्कार की पात्र भी वही
वो लाज में सिमटी सी रहती
पर जग-हसाई भी उसी की हुई
लोगों ने संज्ञाएं तो दी उसे
पर वो नहीं ......
जो हिस्सा थीं उसके वजूद का
उसे कुलटा से लेकर
चरित्रहीन तक कहा
लेकिन उसे कुछ ना कहा .....
जिसकी वजह से ये सब हुआ
कुसूरवार कोई और था
सजा मिलती रही किसी और को
आज भी अन्तर्द्वन्द मन में
पूछता ये सवाल है
क्या समय की अंतिम स्वास तक
नारी ही परीक्षा और त्याग है
क्यों उस पर कोई सवाल नही उठता
क्यों उसको शर्मिंदगी भरी
संज्ञायों से नहीं नवाजा जाता
जिसने लूट कर तार-तार कर दिया
उस अस्मिता को
जिसे बचाने का संकल्प लेकर
आगे बढ़ती है हर स्त्री।