सवाल - जवाब
सवाल - जवाब


ऐ ज़िंदगी,
हैरान हूं मैं भी तेरे सवालों से ,
मैं एक का जवाब ढूंढ़ती हूं
और तू दूसरा सवाल खड़ा कर देती है ,
जब भी लगता है कि ,
तेरे हर सवाल का भान है मुझे ,
तू ये साबित कर ही देती है कि ,
पहलू बहुत हैं जिससे अंजान हूं अभी ,
झड़ी सी लग गई है तेरे सवालों की ,
और इक तेरा इम्तिहान है ...
जो खत्म ही नहीं होता ,
अक्सर बिखेर देती है तू मेरे वजूद को ,
मोतियों की माला की तरह ,
पर क्या करूं...
ज़िद्दी हूं ना तेरी ही तरह ,
इसीलिए ,
बहुत देर मेरा बिखरना भी रहता नहीं ,
हैरान हूं कुदरत के करिश्में से , कि
जहां उम्मीद नहीं होती , वहां ये थाम लेती है ,
बिखर जाऊं मैं हद से ज्यादा ,
उससे पहले ये धागा थाम लेती है,
एक कविता की कुछ पंक्तियां पढ़ी थी पहले ,
कि ......
ज़िंदगी की राह में हर पल कोई अपना मुझे छलता रहा ",
पर मुसाफिर था मैं,
मैं फिर भी अपने सफ़र में चलता रहा ,
चिर - परिचित सा अंदाज़ सबका ,
पर मन में सबके चोर है ,
यहां गवाही किसकी लें जनाब ,
यहां तो पुलिस भी अब चोर है ,
सत्य तो अब ये ही है कि,
चहुं ओर मायाजाल है ,
हर बात छल , हर साथ छल ,
सब चल - अचल छल ही लगे ,
कुछ मोह था , बिछोह था ,
छल से भरा हर पल लगे ।