दर्पण का दर्शन
दर्पण का दर्शन
आते हैं पड़ाव ज़िंदगीं में कुछ ऐसे
उम्र के तकाज़ों को नज़रंदाज़ करना
हो जाता है नामुमकिन
त्रासदी का अहसास होता पहले पहल
मन हो जाता निस्पृह,व्यथित,विकल
गुज़रे मुकाम मंडराएं पल पल
आसपास -है परेशान मानस पटल
चाह कर भी यह दिल पाता नहीं संभल
कितने उद्गार हैं झलकते मेरे चेहरे पर
दर्पण मुस्कुराया मेरी व्यथा देख कर
कहां गई तेरी चंचल मुस्कान
किस बात का है रोना,क्या है चक्कर
क्यों होती इतनी बेकल तू मुझे देखकर
'क्या करूं,चेहरा इन कुछ सालों में मुरझाया
नहीं वह पहले सी चमक,गायब है मुस्कान
अटपटा सा लगता है औरों के आगे
घर कर गया है मन में डर एक अनजान
निराश,ज़िंदगी ने बस इतना ही साथ निभाया!
क्या प्यार से,दोस्तों से,अपनों से,खुशियों से
हो जाऊंगी वंचित मैं-छिन जाएगा रंग रूप
दुनिया माने बस उनको ,जो हों हसीं,
न हो जिनमें कोई कमी-कर गई वह ज़ालिम धूप
बाल मेरे सफ़ेद,झुर्रियों की कहानी कहूं किससे
दर्पण खिलखिलाकर हंस उठा-सुन मेरी बात
दिखती है अनुभव की चमक लाजवाब
तेरे चेहरे पर-परिपक्वता का पहन गहना
बचपना नहीं सुहाता इस उम्र में जनाब
पहले से प्यारी,न्यारी,सुंदर-समझ,सुन मेरी बात
गरिमा ही सौंदर्य,परिपक्वता दे मान सम्मान
सोने चांदी की नहीं, आंखों की चमक
चेहरे की मुस्कान बने तेरा अभिमान!
