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Usha Gupta

Abstract

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Usha Gupta

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गंगा व सागर

गंगा व सागर

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पवित्र नदी है नदियों में सब गंगा,

निर्मल मीठा जल औषधियों से भरपूर,

निराला है अस्तित्व इसका,

मान देवी होती इनकी पूजा-अर्चना।

निकलती इठलाती गोमुख से,

चलती तृप्त करती  मानव, 

पशु-पक्षी और वनस्पति को,

बलखाती प्रियतम से मिलन की राह पर,

भूल अपनी सभी विशिष्टतायें 

हो जाती विलीन पूर्णतय: सागर में,

होता गंगासागर में यह अनोखा मिलन,

समाप्त हो जाता अपना अस्तित्व गंगा का।


 समा जाती समस्त विशिष्टताए गंगा की सागर में,

परन्तु न आता तनिक भी अन्तर सागर के जल में,

रहता जल सदा ख़ारा समुद्र का,

न बुझ पाती प्यास जल की,

रह जाते प्यासे प्राणी सभी विशाल जल स्त्रोत के आगे।

उठती हैं लहरें सागर में ऊँची-ऊँची,

 ज्यों मची हो हलचल हृदय में सागर के,

फिर हो जाता है एकदम शान्त, गम्भीर।

होता क्रोधित जब सागर लहरें उठती ऐसी,

कि मच जाती लीला विनाश की,

खींच लेती लहरें जीवों, वनस्पतियों को,

जाते समां सभी सागर के उदर में।

पिछला सब भूल हो जाता फिर,

शांत और गम्भीर सागर।


मिलती कितनी सीख हमें गंगा और सागर से,

गंगा की भाँति भूल अहं कर दें समर्पित, 

अस्तित्व अपना प्रभु चरणों में,

हो जायेगी लीन सदा के लिये आत्मा परमात्मा में,

मिल जायेगी मुक्ति जीवन मरण के चक्र से।

क्रोध है कारण विनाश का,

दर्शन कराता सागर प्रत्यक्ष इसका,

छोड़ क्रोध रहे शान्त और गम्भीर,

पढ़ाता यह पाठ भी सागर।

मिलती असीम शान्ति बैठ सागर तट पर,

होते अपूर्व दर्शन सूर्योदय व सूर्यास्त के,

है सत्य ही अद्भुत किनारा सागर का।।



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