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Madhu Gupta "अपराजिता"

Fantasy Others

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Madhu Gupta "अपराजिता"

Fantasy Others

कितने रंगों में ढला हैं आदमी "

कितने रंगों में ढला हैं आदमी "

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आदमी ही आदमी का दुश्मन बना है यहां

साथ साथ है मगर दिल में है फ़रेब यहाँ

कौन समझता दिल की एक दूजे की दास्तां यहां

हर कोई मगरूर है अपने बनाए तिलिस्म में यहां....!! 


आदमी ही आदमी को दे रहा धोखा यहां

दोस्त बन के साथ है पर छुपा हुआ खंजर हाथ में यहाँ

अजीब बड़ी तस्वीर है खींची हुई लकीर है

दिल में छुपा के आग वो मुस्कुरा रहा है झूठा यहाँ....!! 


झूठ की भी हद है आदमी आदमी से त्रस्त है यहाँ

कौन कहता है कि हर कोई हैं शरीफ़ यहां

नकाब है चढ़ा हुआ हर किसी के चेहरे पर यहां

कहते फिर रहा है वो मैं हूँ शुद्ध आईना यहाँ....!! 


कैसे किसको दूं गिरा सोचता वह फिर रहा यहां

मुझसे आगे ना निकल जाए करूं क्या ऐसा यहां

आदमी ही आदमी का तोड़ता है भरोसा यहां

बात है सच्ची मगर कहाँ हर कोई मानता यहाँ....!! 


साथ और बात दोनों में है फर्क यहां

नजर और दबी हंसी में हैं अज़ब तल्ख़ियां यहाँ

जानते सब एक दूसरे को पर बने हुए अनजान यहाँ

सोचते हैं खुल ना जाएं एक दूजे के सामने पोल यहां....!! 


कितने रंगों में है बंटा आदमी देखो यहां

महसूस ना होगा तुम्हें हैं माज़रा क्या यहां

हंसते-हंसते कर देगा वो बार तुम पर कब यहां

पहचानना है मुश्किल बड़ा हर किसी का चेहरा यहां....!! 


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