घूंघट में कैद मन
घूंघट में कैद मन


मन के घूंघट में दबे ना जाने कितने ही भाव...
उमड़ते-घूमड़ते और मचलते,
और करते अनेकों सवाल...
सोचती हूँ उन सारे भावों और ख्वाबों को,
ले निकल जाऊँ एक लंबी शहर पे
और पहचानूँ कि कौन हूं मैं....
और तब....
मैं खो कर इस दुनिया की भीड़ में
पूरी कर लूँ वो हर एक हसरत....
जो मन के तहखाना में कब से बंद पड़ी है
एक लंबी वीरांगी....
जिसपे परतें चढ़ती चली गई
लाचारी और बेबसी की,
और हर एक ख्वाहिश मन के घूंघट में हो गई स्वाहा
तड़पता मन सोचता है....
हटा दूँ ये पर्दा ये घूंघट
और घुटन भरा सफर
छोड़ उड़ जाऊं सात समंदर पार
खींच लूँ एक ऐसी रेखा
....
जहां ना रहे अपने और परायेपन का एहसास
बस रह जाऊं तो मैं और मेरे अधूरे सपने
जिन्हें पूरा करने आज सारी बंदिश तोड़
निकल पड़ूं एक अनजाने सफ़र पर,
अंदर से आती आवाज़ करती है विचलित
खंडित कर दूँ उन सारी कुरीतियों को
जो बनाई गई सिर्फ और सिर्फ स्त्रियों के लिए,
घूंघट में कैद मन करता हैं विद्रोह
काट दूं वो बेड़ियाँ...
जो सपनों की उड़ान पर...
लगाती हैं पाबंदियाँ
रूढ़िवादी मर्यादाओं की,
और फिर लिख जाऊं...
एक ऐसी ना भूलने वाली दास्तान
जो हर एक उस स्त्री के सपनों को लगा दे पंख
जिन्होंने आज तक अपने मन के घूंघट में कर रखा है कैद।।