बोलती कलम
बोलती कलम


कलम बिना कागज़ की किस्मत अधूरी होती
कागज बिना खुद को कलम निरर्थक समझती
दोनों को जो समपूर्ण है करती
स्याही वही संगम बन उभरती
कभी शब्दों को पावन कर माला सा पिरोती
कभी शब्दों का जहर काग़ज़ पे बिखेरती
उद्गम कर देती शब्दों से मन मंदिर का कोना
तो कभी जले पर नमक तमाम छिड़कती
कलम वो शक्तिशाली तलवार बन उभरती
जो अच्छे अच्छों का सिर भी नीचा कर देती
गीत ग़ज़ल सरगम लिख मन सबका मोहती
तो झूठ,कुकर्मों और भृष्टाचार का भाड़ा भी फोड़ती
नहीं वो डरती किसी शासन और सत्ता से
जब निडर हो सच्चे हाथों की कलाकारी बनती
कभी खा लेता झूठ की रिश्वत मलिक उसका
तब जामा झूठ का बड़ी चतुराई से पहनाती
जो बोल सके ना भाव मुख से अपने
अधूरा काम कलम वो पूरा कर देती
बनकर हमदम साथी संगी लोगों की
नयी नयी कहानियाँ और कविताएं है गढ़ती।।