किताब का दर्द
किताब का दर्द
एक दिन सोचा कि अलमारी किताबों की कर लूँ साफ
बहुत दिनों से पढ़ी नहीं, धूल मिट्टी तो दूँ झाड़
खोला तो सुना उसमें से आ रहीं थीं कई आवाज
कोई सिसक रही थी ,कोई सुबकती, कोई रूठी बेआवाज
करने लगीं शिकवा मुझसे इतने दिन में आई हमारी याद
याद करो जब मुझे हर वक्त ले के रखते थे अपने हाथ
अपनी प्रियतमा की तरह संग रखते थे दिन रात
कभी बांहों के घेरे में, कभी गोद में बिठा लड़ाते लाड़
कभी छाती पर चिपका के मुझे सो जाते सारी रात
जबसे तुम्हारी नई प्रियतमा ने तुम पर कर लिया अधिकार
तुमने तो अपने जीवन से कर दिया हमारा बहिष्कार
दिन रात हम तुम्हें मिलने मुलाकात की करते आस
तुम्हारे स्पर्श की छुअन को प्यासे हो रहे एहसास
तुमने तो मोबाइल में ही खोज लिया हमारा विकल्प
लेकिन तुम बिन हम पड़े उपेक्षित, निरर्थक अलमारी में बन्द
चिर प्रतीक्षित हम करते रहते इंतजार दिन और रात
कब मिलेगा गरमाहट भरा तुम्हारे आगोश का साथ