कहां घर रे तेरा
कहां घर रे तेरा
मानव तू पिघल रहा है
आँसुओं में गल गल के
जीवन भर तू ओढ़े रहा
निर्मोही चादर मलमल के I
अब चादर ही बनी अंधेरा
सबेरा कहाँ घर रे तेरा
इंसान कहाँ घर रे तेरा I
गरीब अमीर सब दौड़ रहे हैं
ये मन जाने कहाँ अटके
सब नाते टूट अब चुके हैं
मानवता का धागा भी चटके I
ऐकाकी पन सबको घेरा
मधुरता कहाँ घर रे तेरा I
इंसान कहाँ घर रे तेरा I
तेरी सिद्धि का लोहा नहीं है
जाने तू क्या और कहां तक जाना
प्रकृत्ति को तोड़ जोड़ कर
तू बना रहा अपना वैभव आसियाना
प्रकृति ही बना काल का जखीरा
जीवन जान कहाँ बस तेरा
करुण क्रंदन हर घर रे तेरा
इंसान कहाँ घर रे तेरा I