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Kavita Verma

Abstract

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Kavita Verma

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स्मृति विस्मृति

स्मृति विस्मृति

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स्मृति स्मृति स्मृति 

इसे पाने और सुदृढ़ बनाने की कोशिश में 

किये जतन दिन रात 

हर कोई भागता करता कोशिशें 

रटता श्लोक हल करता पहेलियाँ 

पीता कोई काढ़ा या खाता मेवे 


स्मृतियों को संजोने का सिलसिला 

हो गया शुरू प्रथम स्पंदन के साथ 

होश संभालने से पहले 

उस सुरक्षित छोटी सी दुनिया से 

इस अनजान दुनिया तक 

इसी स्मृति के सहारे 


फिर तो भरता ही गया खज़ाना 

कितना कुछ संजोया है स्मृतियों में 

मीठी खट्टी यादें प्यार और तकरार 

होनी अनहोनी कितनी ही बातें 


स्मृतियों के ताने बाने 

सुन्दर कोमल मासूम से 

होते गए गहन घुमावदार 

जिनमें उलझते टकराते चक्कर लगाते 

सच कहीं उलझ ही जाता 

घिर कर उससे छटपटाता 

अगर न होता उसके पास 

वह धारदार हथियार 

जिसे अनचाहे ही थमा दिया गया था उसे 

जिसे कभी ना चाहा उसने 

लेकिन वही बना उसका राहतदार 

विस्मृति विस्मृति विस्मृति। 


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