एक ऐसा दीप..!
एक ऐसा दीप..!
एक दीप ऐसा हो
आँगन के केन्द्र पर बैठी
विचार करती रही कि
किस प्रकार दीपावली के
एक ऐसे दिये का निर्माण करूँ
जिससे मन से मन का
दीप जले..!
मन के अंतःपुर में छाये
अमावस्या और नफरत के
अथाह सागर में,
उठती गिरती
लहरों की तरह
भटकती रही, तलाशती रही
रौशनी की कोई किरण,
एक ऐसा दीप
जो मिटा सके
इर्ष्या, द्वेष और नफरत
के धुंध को
मैं ऐसा ही
एक दीप तलाश रही हूँ
जिसमें प्रेम ही प्रेम हो
रौशनी ही रौशनी हो
एक ऐसा दीप
जो सतत् जलता रहे
जिसकी लौ कभी कम ना हो
ऐसा दीप
जो कभी ना बुझें
जो अनवरत अडिग रहकर
सतत् हमारे जीवन
हमारे समाज हमारे देश,
हमारी भावनाओं को
प्रकाशित करता रहे,
मुझे एक ऐसे दीप
की चाहत है
जो वर्ष दर वर्ष
पीढ़ी दर पीढ़ी
अटल जलता रहे
क्षिप्रा की तरह अविरल
अपनी रौशनी फैलाता रहे।
मुझे तलाश है
एक ऐसे दीप की जो...।