ज़ख्म
ज़ख्म
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नज़रों के नजरिए में बहुत कुछ डुबाया है
आँचल के दरिए में बहुत कुछ छिपाया है
मैंने ज़िन्दगी शायद कम देखी हो
पर शब्दों के ढाँचे में हिदायतों का एक सैलाब पाया है।
अपनी कौम पर मिसालियत के बोझ को मै झेलती आई हूँ
मै ही खुद को ना आहलियत के दलदल में धकेलती आई हूँ
मैंने झीनी चादर में भी जिस्म को झुलसते देखा है
मैंने ही पोशाक ए हिज़ाब का भार उठाया है।
ज़ेवरों की रंजिश से मैंने शिकस्त खाई है
मीनारों से निकलती मेरी सदा दुनिया सुन नहीं पाई है
हाँ,मैं वही हूँ जिसने जिस्म बेचा और ढाँका भी है
हाँ ,मैं औरत हूँ
मैंने ही ज़ख्म ए दस्तूर पाया है।।