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Swati .

Abstract Tragedy

4  

Swati .

Abstract Tragedy

दस्तूर

दस्तूर

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523


जो दरवाज़ा है आईने का सामने मेरे 

ताज्जुब कि इसके पीछे कितना कुछ छिपा है 

दीवार के सहारे उसके सामने खड़ी हूँ मैं 

शायद शब्द ढूँढ रही हूँ तस्वीरों में 

पहली नज़र गई धुंधली आंखों पर 

कि शायद असली अश्कों की शरारत है ये 

जब-जब ये बदसुलूकी करने की हिम्मत जुटाती हूँ

 तब- तब दंग रह जाती हूँ


 हर बार कुछ और गहरा जाता है ये कुआँ 

 डूबने के डर से इस बार भी नज़र फेर ही ली मैंने 

 रौंगटे खड़े हो गए तो हवा बदलने की उम्मीद से होठों के किनारे उठाए

 उफ़्फ ! खुद को झूठ बोलते देखना कितना मुश्किल हो सकता है 

 होठों से नज़र हटा कर नज़र टिकाई तो इस बार पानी नहीं समझ पाईं आँखें 

तस्वीर में कुछ पसंद आने की उम्मीद से बाल खोल लिये

और गर्दन घुमा कर कोई वाज़िब रास्ता तलाशने लगी सुकून का, तसल्ली का 


सच सहन नहीं होता शायद इसीलिए सर दुखने लगा और दर्द नजरों तक उतर आया 

खुद में ही जो लिपटे थे अब तक बेचैनी से उठ जाते हैं हाथ मेरे 

उलझे बालों को नोचते हुए 

मेरी नज़र जब शरीर पर आई तो एक अनकहे डर ने उन्हें फिर चेहरे पर ला दिया 

हैरान हूँ मैं कि वह भारी, झूठी मुस्कुराहट ज़िंदा है अब भी 

मौत सी चिल्लाती रूह और शमशान सा शांत शरीर 

एक साथ ये सच और झूठ, छाँव और धूप से ठहरे हैं मुझमें


कुछ डर भी होगा कि भौहों ने जवाब दे दिया

हाथ गिर गए हैं नम होकर, कि पैरों ने साथ छोड़ दिया

 बैठ गई मैं हार कर हाथों में चेहरे को समाए 

कोशिश कर रही हूँ कि सारी चीखें, सारे आँसू पाताल पी जाए 

एक बार फिर झूठा वादा किया है मैंने खुदसे कि दरवाज़े नहीं खोलूँगी 

पर दरारें तो रोने को भी मौहलत नहीं देती

इस दस्तूर का अंत हो जाए मेरे अंत से पहले

ज़िंदगी की सबसे बड़ी जद्दोजहद यही है अब।


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