कतरा कतरा ख्वाब
कतरा कतरा ख्वाब
रोज रात को सो जाती हूं ख्वाबों को तकिए के नीचे रख
सुबह सहला कर उर से आलिंगन करती उसके संग
कुछ ख्वाबों को इलायची संग चाय में देती उबाल
कुछ परात में गूंथे जाते आटे के साथ
कुछ मिलकर मसालों के साथ बढ़ा देते स्वाद
कुछ रोटियों की आकृति में हो जाते गोलाकार
कुछ बह जाते हैं नाली में झूठे बर्तनों
की झाग में
कुछ देहरी में झड़ जाते पायदान , कालीन के साथ में
कुछ दब जाते गृहस्थी परिवार की जिम्मेदारियों में
कुछ खो जाते बच्चों की परवरिश, जरूरतों में
कुछ टंग जाते दीवारों में वॉल हैंगिंग बनकर
कुछ महक जाते गुलदानों में फूलों की खुशबू बनकर
पिरो के कुछ अरमानों को धागे में कर लेती रफू सिलाई
क़तरे क़तरे सपनों को सिल कर करती रहती तुरपाई
अपने नाम खुद के पलों में भर लेती उनमें रंग
कलम के पंखों से पन्नों पर उड़ती फिरती कल्पना संग
इस तरह अपने ख्वाबों को घर भर में देती हूं बिखरा
और उनमें ही खुद को मैं पा लेती हूं कतरा कतरा
