ख्वाहिशें
ख्वाहिशें
ख्वाब, ख्याल, और ख्वाहिश तो रोज
मन में लेते रहते हैं नये जन्म
कुछ हो जाती हैं पूरे, कुछ अधूरे
कुछ कहे और कुछ होते अनकहे दफन
जिन्दगी तो हर रोज लगाती है
बाजार सपनों ख्वाहिशों का
चुनना होता है हमें उसमें से
कौन सा है हमारी जरूरत का
पूरी करते जिम्मेदारियां
अपनों के सपनें चाहतें
दम तोड़ देती हैं जाने कब
अपनी खुद की ख़्वाहिशें
एक कशमकश सी चलती है
हमारे और ख्वाहिशों के दरम्यान
वो जिन्दा रखती हैं हमें
और हम मिटाते रहते हैं उनके निशां
लेकिन खुदगर्ज़ हो जाती हैं
कुछ ख़्वाहिशें जिन्दगी में इस कदर
खुद जिन्दा रहने के लिए करती रहतीं हैं
कत्ल हमें तिल- तिल ,पल- पल।
