समन्दर की तरह
समन्दर की तरह
समुंदर की तरह तो हम बन ही जाते हैं,
मग़र कुएँ के मेढ़कों काे क्या हम समझाएँ,
बार बार टर्र टर्र करके पास आ ही जाते हैं,
और कुएँ की ओर खींचते ही रहते हैं।
माना कि कुआ समन्दर के पानी का फल है,
पूरा समन्दर कुएँ में आखिर कैसे समाए,
सोच सोच कर बस दिमाग फेल हो जाते हैं,
मग़र मेढ़क तो पूरा ही समन्दर चाहते हैं।
कुछ भी कहें सब व्यर्थ की बहस ही तो है,
चाह कर भी जानना और बताना मुश्किल है,
किसी के दिल का हम क्या ऐतबार करें,
जानते हुए भी जो समझना नहीं चाहते हैं।