किराये का घर
किराये का घर
घर था स्वर्ग सम सुंदर मेरा
सुख समृद्धि का नित्य बसेरा
पावन शुभ मंगल प्रत्येक सवेरा
वात्सल्य सरित का अनुपम ड़ेरा
घर की छत सम छाँव पिता की
ममत्व मूर्ति सम रूप माँ का
बहनें थी आँगन की कलियाँ
मुस्कान से जिनकी महकती गलियाँ
काल को किन्तु सुख न मेरा भाया
एक विकट विकराल क्षोभानल आया
हुआ अश्निपात, न घर मेरा बच पाया
छिन गयी मुझसे स्नेह की शीतल छाया
मन है आंतक अंक में लिपटा
पर आँखों में है सुदंर सपना सिमटा
क्या वह स्नेह सरित फिर मिल पाएगा ?
क्या यह व्यथा कथा मन कह पाएगा ?
मन में अकस्मात तरंग प्रवाह आया
मिल जाए खोया घर चाहे देकर किराया
पर मन अकिंचन यह सोचकर घबराया
क्या वश में है कि दे सके किराया ?
मन का अश्रुकोश लुटाकर
अधूरे सपनों का मोल लगाकर
हृदय व्यथा को कर न्योच्छावर
क्या मिल सकेगा किराये का घर ?
पर क्या होगा वह स्वर्ग सम सुदंर ?
ममत्व मूर्ति न होगी उसके अंदर
न होगी छत की छाँह घनेरी
होगी वह मलिन स्याह अँधेरी...!