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ख्यालों से ज़िंदगी तक

ख्यालों से ज़िंदगी तक

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ज़िंदगी मंजिलों तक कैसे,

पहुँचाती है ये तो वही जाने,

पर यूँ हीं सफर में,

चलते-चलते थक सा गया हूँ।


झाँकता हूँ कभी मंजिलों में,

तो कभी दिल की तरंगों में,

ना है दिल में,

ख्वाहिशों की दस्तक,

ना ही दिल में,

चाहतों की आहट।


सुना था जीवन में,

मंजिल होना जरुरी है,

और मंजिल के लिए,

सच्ची लगन भी जरुरी है।


पर जिंदगी की करवट है,

जो थम-सी गई है,

और ख्यालों का जमावड़ा है,

जो रुकता ही नहीं।


ना दिल पर इख्यितार है,

ना किसी पर ऐतबार,

अब क्या करूँ कैसे करूँ,

तू ही बता ऐ ज़िंदगी,

क्योंकि ना तेरे चलने का,

पता है ना बदलने का।


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