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चलते चलते यूँ ही

चलते चलते यूँ ही

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कहाँ रुकूँ, कैसे रुकूँ,

क्या देखूँ, कैसे देखूँ,

सपने कुछ झिलमिल से हैं,

कुछ अनसुने, कुछ अनकहे।


झड़-झड़ में धड़कती धारा कहती है,

थोड़ा पास ओ सपने आओ ना,

तुझ संग जो प्रीत लगाई है,

अब साथ चलो तुम सदा-सदा।


क्या समझूँ, कैसे समझूँ,

कुछ अनदेखा, कुछ अनसुना,

पग-पग चल कर देख लिया,

कोई नहीं है मान लिया।


कहीं धूप है, कहीं छाँव है,

संघर्ष की इस सीढ़ी पर कहीं चाव है,

बच-बचकर हर मुश्किल से,

अकेले ही लड़ना है, जान लिया है।


अकेले ही चलना है, ठान लिया है,

बस साथ रहे अपनों का,

मैने अपना संघर्ष मान लिया है।


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