खो गया सबकुछ ...
खो गया सबकुछ ...
हर तरह सुख चैन से,
थी ज़िंदगी भरपूर।
जाने किसकी आह निकली,
सुख जा छिटका दूर।।
सूर्य की किरणें थीं मद्धिम,
चांदनी दुधिया अधूरी।
रात डसने को खड़ी यूं,
भोर आधी और अधूरी।।
क्या हुआ ..., क्यों कर हुआ,
मन है हठात उदास।
कल तलक खुशियाँ विपुल थीं,
मन भरे उच्छास।।
जब तलक हम दो थे पर,
जब "तीसरा" आया।
दुखद हर संयोग तब फिर,
घटा बन छाया।।
हर गिला शिकवा को मानो,
लग गए हों पंख।
आँखों में जिसके बसे हम,
वह भी मारे डंक।।
क्या उठा आँखों से पर्दा,
वासना ने जो ढंका था ?
या डसा है सांप ने,
जो आस्तीनों में पला था !!
श्वेत वर्णा रूप ने,
क्या मुझको कुछ ऐसा छला था ?
मानो विष कन्या ने मुझको,
खूब जी भर कर डसा था।।
"मैं" नहीं अब "मैं" रहा,
हर ओर से प्रभु हूँ मैं घिरा।
वासना ने यूं छला,
आकंठ उसमें मैं घिरा।।