खिलौना
खिलौना


कभी चाबी के भरने से,
फुदकता था, उछलता था,
चमकता था रंग उसका,
बड़ा इठला कर चलता था।
सभी दूजे खिलौनों से,
वह बेहतर था, वह सुंदर था,
इसी कारण से, बच्चे के,
वो अक्सर साथ सोता था।
सारी जनता को उसके,
करतब खूब भाते थे,
उसे अभिमान होता था,
जब सब ताली बजाते थे।
सालों वो चला अनथक,
किसी की ना वो सुनता था,
रातों को, डब्बे में लेटा,
सुनहरे ख्वाब बुनता था।
प्यार पाया उसने इतना,
कि भूला वह खिलौना है,
कहाँ उसको पता था कि,
खिलौने का क्या होना है।
एक दिन बच्चे के पापा,
विदेश जा के घर आये,
नीले रंग की चमकती सी,
वो प्यारी सी कार ले आए।
वो रिमोट से चलती थी,
सरपट दौड़ जाती थी,
इधर घूमती, उधर मुडती,
कितने वल वो खाती थी।
खिलौना जो नया पाया,
पुराना याद ना आया,
पुराने खिलौने की समझ में,
फिर भी ना आया।
कि उसकी चमक फीकी है,
और अब वो पुराना है,
नया अब आ चुका है,
बस उसे खुद को बताना है।
रहा डब्बे में वह लेटा,
बरसो हिल भी ना पाया
सालों से उसका करतब,
ना कोई देखने आया।
चमकता रंग गायब हो गया,
अब यह नहीं चलता,
खिलौना अब है यह टूटा हुआ,
कोने में है पड़ा रहता।
तसल्ली कर खिलौने तू,
किसी के काम तो आया,
किसी मासूम बच्चे की,
खुशी का मर्म बन पाया।
हमें भी याद रखना है,
यह तय है, यह तो होना है,
हम सारे ही खिलौने हैं,
और अपना भी एक कोना है।
हम सारे ही खिलौने हैं,
और अपना एक कोना है।