"खौफ़नाक मंज़र"
"खौफ़नाक मंज़र"
अनेकों खौफ़नाक मंज़र
तैरने लगते हैं
निगाहों के सामने...
जब खुलता है अख़बार का
पहला पन्ना...
एक-एक ख़बर के साथ
उठने लगती है
झुरझुरी तन-मन में...
काँप उठती है रूह...
खड़े हो जाते हैं
रोंगटे...
उतर आता है लहू
आंखों में...
और कतरा-कतरा होकर
फैल जाता है
सारे पन्ने पर...
विलोपित हो जाती है
सारी इबारत...
और आंखों के सामने
वो खून के कतरे
बदल जाते हैं ...
किसी नवजात कन्या के शव में,
किसी बलात्कार पीड़ित के
रक्त सने चेहरे में
तो कभी
किसी आतंकवादी की गोली के शिकार
किसी सैनिक की
तिरंगे में लिपटी देह में.
और कानों में लगती है
गूँजने
कर्णभेदी चीखें..
न आंखें बंद करने से छुपता है
न कान बन्द करने से
रुकता है आर्तनाद...
उफ़्फ़! ये कैसा है मंज़र?...
कि अचानक टूट जाती है नींद
लेकिन नहीं होते ओझल
वो खौफ़नाक मंज़र...

