"सफ़र ज़िन्दगी का"
"सफ़र ज़िन्दगी का"
कैसा है ये
जीवन जीवन का सफ़र...?
चलते-चलते
जाने कितनी दफ़ा
लौटता है कभी तन
तो कभी मन
गुज़री हुई रहगुज़र से...
और बदले हुए मंज़र में
तलाशता है
वो माज़ी के निशां
वो मंज़र ओ पसमंज़र..
लेकिन गुज़रे हुए कल का
कभी लौटा है कोई पल
जो जिया था
किसी नदी के किनारे
लहरों के संगीत में
सुर से मिला कर सुर...
अब तो वो लहरें भी
समा चुकी हैं
समन्दर में
और समा चुके हैं वो
जिये हुए लम्हे
वक़्त की आगोश में...
बस एक सफ़र है जो
चलता जा रहा है
मंज़िल की ओर...
और हम कभी मंज़िल की धुन में
तो कभी यादों के ब्याबान में
भटकते हुए
हो जाते हैं वंचित
पुर लुत्फ़
ज़िन्दगी के सफर से...
