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Dinesh paliwal

Abstract Horror Tragedy

4.7  

Dinesh paliwal

Abstract Horror Tragedy

अंतरद्वंद्व

अंतरद्वंद्व

1 min
199


बीत गए अवकाश के दिन, अब दिल को समझाना हैं।

मन का हो या ना हो, कल फिर ऑफिस जाना हैं।


ज्ञात नहीं कब बार आखिरी, मन में एक उल्हास था।

दृण श्रम ही उन्नति का पथ, मन में ऐसा विश्वास था।

अब मात्र लक्ष्य जीवन का, बैंकों का कर्ज चुकाना हैं।

मन हो चाहे ना हो, फिर भी ऑफिस जाना हैं।


क्या क्या स्वपन देखे थे सुहाने, अपना जीवन जीने के।

श्रम प्रतिफल अनुपम पा कर, नभ और अम्बर को छूने के।

ज्ञात नहीं कब बार आखिरी, मैं खुल कर मुस्काया था।

कटती हुई उम्र में से, कुछ पल मैं भी जी पाया था।

इतने फ़र्ज़ों के बोझ तले, अब खुद को ही दफनाना हैं।

मृत इच्छाओं के शव चढ़, कल फिर ऑफिस जाना हैं।


जिस पथ का गंतव्य हैं धूमिल, पथिक ढूंढता हैं बस शाम।

पग प्रेषित कर उस पथ पर,जीवन को हैं क्या आयाम।

क्या इस अनुपम जीवन को, उद्देश्य नहीं दे पाऊंगा।

क्या मन की इच्छा मन रख, अंतिम गति को पा जाऊंगा।

सोच निरंतर इस सबको, अब व्यथा को ना और बढ़ाना है।

हुआ खत्म अवकाश, चलो फिर ऑफिस जाना हैं।

मेरी यह कविता जो हमारे जीवन के अंतर्द्वंद्व को दर्शाती हैं।


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