बंजर गुलिस्तां
बंजर गुलिस्तां
आज इस इबादत के जहां में,
यह कैसा भयावह दृश्य है।
फैला रहा है जो भी तबाही,
यह कौन राक्षस अदृश्य है।
हंस रहा क्यों सिरफिरा तू,
लूटकर जीवन सरस यह।
क्या मिलेगा इस हरम से,
कुछ परिणाम के बारे में कह।
इंसान की चीखें चरम पर,
यह कैसा हो गया है मंजर।
झांकती है रोशनी उधर से,
जिधर भी गुलिस्तां हैं बंजर।
हर शहर के इस फिजा में,
मंड़रा रहा है काला साया।
मानव भी कैसा अबोध था,
अनहोनी को समझ ना पाया।
फिर से रोशन कर दो जग को,
उठ जाओ अब हुआ सवेरा।
खुशियों से सींचो यह गुलिस्तां,
कर दो फिर से नया बसेरा।