ज़हर
ज़हर
फिर एक आह ने ज़ख़्म छू लिया है
तेरा नाम जब किसी ने लिया है
तार से निकली हुई ये धुन
अब मेरी रूह से लिपटती सी महसूस होती है
मुझे अफ़सोस है तो बस यही
तुझे मेरी कमी क़्यूं महसूस नही होती है
तुझे क्या पता
स्कूल की क्लास हो या
रास्ते से गुज़र
या यूँ ही कही
दफ़तअन तेरा मिल जाना
ख़ुदा की क़सम
दिल ओ जाँ पे तेरा
सूरुर छा जाना लाज़िम था
तेरा अक्स तेरी आवाज़
को में आँखों और कानों में क़ैद कर के
रातों को छत पर
आँखों को मूँदकर
घंटों तलक अपनी रूह को तस्कीन देता था
तेरी तस्वीर को उकेरा है जब कभी
कैनवस पे
तेरी आँखें तो बन गई जैसे तैसे मगर
तेरे होंठों में रंग भरते हुए
हाथ कँपकँपा गए
ये सोचकर कि
कहीं ऐसा ना हो
मुहब्बत की शराब में
बिन चाहे हवस घुल ना जाए
और
ये मेरे जाम को ज़हर ना कर दे