आख़री ख़त
आख़री ख़त
कहानियों के समन्दर में
पनाह लेते कुछ छुपे हुए हादसे
जो आज भी अपनी आँखें नहीं खोल पाये है
ज़िंदगी सिर्फ उम्मीदों के नाम पर नहीं टिकती
ये वो धरती है जो एक धूरी पर नहीं घूम सकती
मर्जियाँ इश्क़ की महबूब की साया हो भी मगर
कुछ दूरियों के गुबार से मंजिल गुम नहीं होती
फ़लसफ़ी सुकरात ज़हर भी पी गया था
अपने होने के निशान छोड़ गया था
कुछ इस तरह होश रहे
हवस से दूरियां जितनी हो सके रहे
प्यास बुझ गई तो क्या रहेगा
रुह बूँद बूँद को तरसती रहे
ना जाने कब तलक अपने गमगुज़िश्ता ख्यालों में
तुम गुम रहोगे
ज़िंदगी पिघल रही है
मोम सी
मुठ्ठी में बन्द रेत सी
राह तकते रास्तों से अब कौन पूछे
जो शहर जा बसे वो अब गाँव कब लौटेंगे
धुँधली सी नज़र में हर चेहरे में
वो बूढ़ी नजरें जिन्हें ढूँढती है
हर आती आवाज़ में मन्द पड़ चुके कान भी चौक उठते हैं
सूनी सी गलियों में कबसे तेरी ख़ुशबू नहीं महकी
एक बन्द दीया जो सदियों से
वीरान घाट पर रखा जल रहा है
तेरी दीवार पे बैठा परिंदा कुछ कह रहा है
सूरज नमूदार और फिर ढल रहा है
रोशनी और अँधेरे के बीच
अपने होने के निशान तलाशती उम्मीद के हाथ थामें
लबे ख़ामोश पर अब लफ्ज़ कुर्फ़ है जैसे
बदन में क़ैद रुह जल रही हो जैसे
ये इम्कनात
ये मन्ज़र निगारी
ये बलखाती नदियों जैसे अफ़साने
ये दिल दिमाग़ो पर पूती यादों के ख़लिश के कुछ छन्द है
अब तेरा आना भी क्या आना होगा
अब मेरी तरफ़ आने वाला भी रास्ता बंद है
कभी ज़िन्दगी की फुर्सतों में मेरे सवालों के जवाब ज़रूर लिखना
मुझे जब ख़त लिखो मेरे पते की जगह
हवाओं के नाम लिख देना!
