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Shahwaiz Khan

Abstract Tragedy Others

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Shahwaiz Khan

Abstract Tragedy Others

परिंदे

परिंदे

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शाम ढले नभ पर

परिंदे थके मांदे अपने आशियाने की तरफ़

उड़ते देखता हूं तो

सोच में पड़ जाता हूं

जो ज़िंदगी से लग के गले

महका कर दिल की बगिया को

ख़्वाबों को नया रंग रूप देते हैं

फिर कोई वजह

बेवजह बेसबब

होकर जुदा नई राह पकड़ कर

चले जाते हैं

क्या वो भी कभी

इन परिंदों की तरह

थक हार कर

क्या वापिस आ जाएंगे


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