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Shahwaiz Khan

Abstract Romance

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Shahwaiz Khan

Abstract Romance

कभी कभी

कभी कभी

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अपने होने के अहसास से अगर तुम वाक़िफ़ हो

तो कभी फुरसतों में सोचना

ये जो तेरी मेरी कहानी के अक्स है

जो पीछे छोड़ गए हो तुम


वो आज भी बिखरे पड़े हैं टूटे काँच की तरह

जिसके हर टुकड़े में क़ैद है एक मिलन की तस्वीर

गुलो बुलबुल सी हमारी मुहब्बत

वो एक दूसरे में डूब जाने की चाहत

वो हर फ़िकरो ग़मों से दूर


हाथों में हाथ लिए डूबते सूरज से पार जाने को बेताब

कब हमने सोचा था

एक दूसरे से सिवा और क़्या सोचा था

ज़िंदगी इसी बेख़दी से गुलज़ार थी

ज़माना सय्याद की चालो से बेख़बर थी


और वो चाल चल गया

दीया प्यार का बुझ गया

दुरियों के जालें दरमियाँ इतने बुन गए

तुम, तुम ना रहे

हम, हम ना रहे


मगर युँ ही कभी कभी

आज भी तेरा ख़्याल दिल से गया नही

सोचता हूं रात ढले तारों की छाँव में

क़्या तुझे मेरा ख़्याल आता नहीं।


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