जगत पिता का ज्ञान
जगत पिता का ज्ञान
एक दिन जगत रचयिता ने
लिया जगत जननी को साथ
बोले चलो, धरा को देखें
और हम करते जायें बात
घूम रहे थे, इधर उधर
तभी पड़ी उनकी नज़र
उनसे कुछ ही दूरी पर
बैठा था, बालक पत्थर पर
जा पहुँचे, निश्चय कर दोनों
एक पल में बालक के पास
दिया परिचय, बालक को
जो बैठा था, दुखी उदास
परिचय पाकर उन दोनों का
पल में बालक हुआ मगन
सहसा उसने दाग दिया
उन दोनों पर, कठिन प्रश्न
बोलो, तुम दोनों ने मुझको
क्यों इस धरा पर भेज दिया
जन्म दिया तुम दोनों ने पर
क्यों ना मुझको, घर दिया
माता पिता ने छोड़ दिया
मुझे अकेली रातों में
व्यंग्य सभी का नज़र क्यों आए
जहर से कड़वी, बातों में
मिली ना मुझको मां की ममता
और ना पिता का शीतल स्नेह
जीवन की राहों में चलते
झुलस गयी, मेरी यह देह
ना मेरा अपराध था कोई
ना मेरा था कोई दोष
फिर भी भेजा, धरा पर मुझको
बरसा क्यों यह, ऐसा रोष
सुन कर इन सारी बातों क
ो
जगत पिता पहले मुस्काये
फिर धीरे से होंठ हिला कर
उसको, मधुर वचन सुनाए
सुनो पुत्र यह बात हमारी
कोई भूल नहीं तुम्हारी
तुम आए हो इस धारा पर
अति विशिष्ट, कार्य को लेकर
इस धरती पर जिन्हें मिली है
प्रेम की शीतल ठंडी छाँव
मिलकर मेरे उन्हीं पुत्रों ने
जला दिए मेरे यह पाँव
कर्तव्यों को भूल गये वो
छोड़ा मर्यादा का ध्यान
जिनसे मिली प्यार और ममता
करें उन्हीं का वो अपमान
सच्चे प्यार का, है क्या मोल
केवल तुमको है यह ज्ञान
करना है क्या तुमको काम
सुनो ज़रा, देकर अब ध्यान
इस दुनिया में करो भ्रमण
और करो तुम यह प्रचार
दया, धरम और मानवता का
और इस स्नेह, का करो प्रसार
छूकर दुखी दिलों को तुम
उनमें प्यार के, दीप जलाओ
समझा कर भटके प्राणी को
सही मार्ग पर, पुनः तुम लाओ
जीवन के उस, उच्च ध्येय का
हुआ फिर उस बालक को ज्ञान
नमस्कार कर जगत पिता को
चला वो मुख पर, ले मुस्कान !!!