हिंदी
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नहीं लिखती मैं अक्सर,
रचनाएं पर्व विशेष पर।
करती हूं आत्मविश्लेषण,
हर पुनीत पर्व पर्व पर।
क्या सीख पाई मैं वह सब,
जो पर्व मुझे सिखलाते है।
क्या पूर्ण कर पाई कर्म,
जो कर्तव्य मेरे कहलाते है।
केवल कुछ आशाएं या प्रसंशा,
मेरा यह ही तो कार्य नहीं।
केवल यह ही तो मेरे,
जीवनपथ की पुकार नहीं।
चीख चीख वह तो कहता,
क्यों अभी भी सब पीड़ित है।
जब मानवता को जगाने वाली,
हिंदी, संस्कृत जीवित है।
शायद हम इनके पुजारी,
इनकी पूजा से चूक गए।
तभी तो मन मस्तिष्क में,
दूषित विचार घुस गए।
आज समय न बधाई का,
केवल आत्मविश्लेषण का।
हिंदी संस्कृत जीने का,
प्रेम पथिक ही बनने का।
शायद जागे तब करुणा,
हम सब के दिलो में भी।
सोई मानवता हुंकार भरे,
दुष्टता के दमन को भी।
जाग जाए फिर प्रेम,
हम सब के अंतर्मन में भी।
जुड़ जाए फिर से ही प्यारो,
वसुधैव कुटुंबकम् से नाता भी।
यह भी एक साधना पथ है,
जिस पर अब हमें चलना है।
लिखने बोलने से भी ज्यादा,
भाषा को जीना सीखना है।।