अलग सोच
अलग सोच
मैंने आज सुना है, उस पाषाण का दर्द,
जिसे पत्थर समझ लिया जहां ने,
वह प्रहार कर रहा था शब्द बाण,
या कराह रहा था वो अनकहे दर्द से।
सुन कर मैं भी कुछ ठिठक गई,
इस अनकहे दर्द से लिपट गई,
सोचने लगी कुछ निःशब्द सी मैं,
कहां पर चूक मनुज से हो गई।
एक सोच रहा था कि वो रक्षक था,
दूसरे को समझा उसने भक्षक था,
एक दिशाहीन तकरार सी हो गई,
एक उजली सुबह पाषाण क्यों हो गई।
शायद बना दिए थे हमने, कुछ अंतर ऐसे भी,
जिससे जीवन की कुछ भोर ऐसी हुई,
जैसे घनघोर अंधेरी सी रात हो गई,
कुछ उजली भोर फिर पाषाण हो गई।
एक ममता भी जागी फिर,
उस पाषाण को तराशने को,
उस पत्थर में छिपी,
वह सुंदर आकृति उभारने को।
शायद हो सकती हूं मैं भी आरोपी,
इस समाज की नजरों की,
सोच है मेरी जो आज,
अपराधियों को सुधारने की।।